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सिगाटोका

केले में सिगाटोका / करपा- कारण, लक्षण, उपाय और प्रबंधन

सिगाटोका या करपा रोग क्या है??

सिगाटोका या करपा रोग वातावरण और जमीन में नमी आने के कारण केला फसल पर होने लगा है। इसका असर कई गांवो में देखने को मिला है। किसानों ने कहा कि अब भी नहीं अलर्ट हुए तो भारी ठंड पडऩे के दौरान केला फसल पर असर पड़ेगा। यह रोग जब फसल को जकड़ेगा तो उत्पादन पर खासा असर पड़ेगा, इससे किसानों को उचित भाव भी नहीं मिलेंगे। २० हजार हेक्टेयर में रोपित केला फसल पर ध्यान देना जरूरी है, नहीं तो करोड़ों रुपए का नुकसान होगा।

फसलों के दौरे के समय यह बीमारी सामने आई है। इस पर ध्यान देना जरूरी है। नहीं तो आगे बढऩे की पूरी संभावना है। इससे केले के पत्ते जल जाएंगे, उत्पादन गिरेगा। समय से पहले केला खेत में पकने लगेगा। मेच्योर नहीं होगा तो भाव भी बेहतर नहीं मिलेंगे। इससे २५ से ३० प्रतिशत उत्पादन घटेगा। केला भारत के लगभग सभी हिस्सों में व्यापक रूप से उगाई जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण फलों की फसलों में से एक है। इस वर्ष में लगभग 35 मिलियन मेट्रिक टन के अनुमान के साथ भारत दुनिया भर में केले के उत्पादन में 1st स्थान पर है। भारत में, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु , गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रमुख केला उत्पादक राज्य हैं। हालाँकि, भारत में केला किसानों के लिए सिगाटोका या करपा रोग एक महत्वपूर्ण समस्या है। सिगाटोका या करपा एक कवक रोग है जो केले के पौधों को प्रभावित करता है और अगर ठीक से प्रबंधन नहीं किया गया तो उपज में काफी नुकसान हो सकता है।

यह रोग केले की उपज को 50% तक कम कर सकता है, जिसके परिणाम स्वरूप किसानों को महत्वपूर्ण आर्थिक नुकसान हो सकता है। यह फल की गुणवत्ता पर भी प्रभाव डाल सकता है, जिससे यह घरेलू और निर्यात दोनों बाजारों के लिए अनुपयुक्त हो सकता है। यह रोग अनुकूल परिस्थितियों में बहुत तेज़ी से फैलता है और इसलिए इसकी शीघ्र पहचान, निगरानी और प्रबंधन उपज हानि को कम करने और फलों की गुणवत्ता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

केले में सिगाटोका या करपा रोग के प्रकार

  • पीला सिगाटोका या करपा (माइकोस्फेरेला म्यूजिकोला)
  • काला सिगाटोका या करपा (माइकोस्फेरेला फिजीएंसिस)

केले में सिगाटोका या करपा रोग पैदा करने वाले कवक की दो प्रजातियों में से, पीली सिगाटोका या करपा रोग केले के उत्पादन के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है, जबकि काली सिगाटोका या करपा रोग भारत में ज्यादा प्रचलित नहीं है।

रोग के लिये अनुकूल स्थिति

अभ्यास के अनुसार ठंड और बारिश के मौसम में यह बीमारी देखने को मिलती है। जमीन में नमी ज्यादा रहने पर फंगस का असर होता है। पहले यह नीचे के पत्तों पर अटैक करता है। पत्ता धीरे-धीरे पीला होकर लाल दिखने लगता है। फिर यह फंगस ऊपरी पत्तों पर भी पहुंच जाता है। केले के पौधे का वजन अगर २० किलो आना है, तो वह १५ किलो रह जाता है। चिंता की बात यह है कि यह रोग नई और पुरानी फसल दोनों में लग जाता है।

25 – 30 डिग्री सेल्सियस के बीच उच्च आर्द्रता और तापमान, वर्षा, सतह की नमी के कारण पत्तियों का लंबे समय तक गीला रहना रोग के तेजी से फैलने में मदद करता है।

जिन पौधों में पोटेशियम जैसे प्रमुख पोषक तत्वों की कमी होती है, वे इस रोग के प्रति अति संवेदनशील होते हैं

खेत की स्थिति, खराब जल निकासी, संक्रमित पत्तियों और पौधों के मलबे की उपस्थिति

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सिगाटोका या करपा रोग के लक्षण

प्रारंभ में, हल्की पीली या भूरी हरी धारियाँ पत्ती के लेमिना की नोक या किनारे के पास और पत्तियों की मध्य शिरा पर भी दिखाई देती हैं बाद में, ये धारियाँ आकार में बड़ी हो जाती हैं और पत्तियों पर धुरी के आकार के धब्बे बन जाती हैं, जिनका केंद्र हल्के भूरे रंग का होता है और पीले आभामंडल से घिरा होता है, जो पत्तियों के समानांतर चलता है। धीरे-धीरे पत्तियाँ सूखने लगती हैं जिससे प्रभावित पत्तियाँ झड़ने लगती हैं
अनुकूल परिस्थितियों में यह रोग पूरी पत्तियों पर फैल जाता है और फलों के गुच्छे निकलने के बाद गंभीर हो जाता है
संक्रमित पौधों में फल छोटे आकार के दिखाई देते हैं और समय से पहले पक सकते हैं, जिससे अंततः उपज कम हो जाती है।

सिगाटोका या करपा रोग निवारण ??

  • ऐसी प्रजातियाँ उगाएँ जो रोग के प्रति कम संवेदनशील हों
  • रोपण अच्छी जल निकास वाली मिट्टी में किया जाना चाहिए और उचित जल निकास बनाए रखना चाहिए
  • जलभराव से बचें क्योंकि इससे जड़ें सड़ सकती हैं और पौधा कमजोर हो सकता है, जिससे फंगल संक्रमण हो सकता है.
  • रोपण अच्छी दुरी पर करे, दो पौधों के बीच पर्याप्त अच्छा अंतर रखें, कम से कम एक पौधे को ३५ स्केवर फीट जगा मिले इस तरह रोपण करे.
  • सकर्स को निकट दूरी पर लगाने से बचें खेत में भीड़भाड़ से बचने के लिए समय-समय पर सकर्स की छँटाई करें और केवल एक या दो स्वस्थ सकर्स ही रखें
  • रोग को और अधिक फैलने से रोकने के लिए प्रभावित पत्तियों को समय-समय पर हटाएं और नष्ट करें
  • संक्रमित पौधों को कीटाणु रहित किए बिना छंटाई उपकरणों का उपयोग न करें
  • उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें
  • खेतों को खरपतवार और अन्य फसल अवशेषों से मुक्त रखें
  • पत्तियों को गीला होने और उच्च आर्द्रता पैदा होने से बचाने के लिए पौधे की छत्रछाया के नीचे सिंचाई करने की सलाह दी जाती है

इस बीमारी में फुफुंद नाशक दवाई का उपयोग पत्तों पर करना चाहिए। केला फसल उत्पादक को सलाह दी हैं कि केले के नवीन बगीचे में जिन पोधों पर नीचे पत्तिया सुख गई हैं या पिली हो रही हैं उन पत्तियों पर फुफुंद नाशक दवाई का अच्छे से छिडकाव करें.

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छिडकाव करें

  • Karbendizm+Mencozeb – २-३ ग्रॅम प्रति लिटर यां
  • Tebuconazole + Trifloxystrobin- १-१.५ ग्रॅम प्रति लिटर यां
  • Trifloxystrobin + Difenoconazole + Sulphur – १-२ मिली प्रति लिटर यां

उपर दिये गये सभी में से कोई भी एक दवाई लें और अच्छे से छिडकाव करें निचे की पत्तिया अच्छे से गिली करनी है. इन का छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर किया जा सकता है।

रासायनिक कवकनाशी लगाते समय चिपकने और फैलाने वाले एजेंट जैसे स्टिकर , एडजुवेंट का 1 मिली/लीटर स्प्रे घोल का उपयोग करें।

सिगाटोका या करपा रोग एक कवक रोग है जो पूरे देश में केले के पौधों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा है। कवक केले की पत्तियों को संक्रमित करता है और धब्बे पैदा करता है, जिससे बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और पत्तियां गिर जाती हैं, जिससे फल की गुणवत्ता प्रभावित होती है और इस प्रकार उपज कम हो जाती है। सिगाटोका या करपा रोग के प्रभावी प्रबंधन के लिए प्राकृतिक और रासायनिक नियंत्रण विधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है, जिसमें प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग, प्रभावी कवकनाशी अनुप्रयोग और क्षेत्र की स्वच्छता बनाए रखना शामिल है। केले की फसल को इस विनाशकारी बीमारी से बचाने के लिए इन निवारक उपायों और प्रबंधन रणनीतियों को लगातार लागू करना महत्वपूर्ण है।

लेख संकलित है

संकलन

हर्षल राजपूत, शिरपूर

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